चाय-मटृठी का मेल भी अपने आप में अनोखा है। गर्म-गर्म चाय के साथ करारी-खस्ता नमकीन मटृठी अपने अनुभव के आधार पर प्रिंट मीडिया के पत्रकारों में अच्छी-खासी लोकप्रिय है। जहां तक मेरा मानना है कि स्पष्ट रूप से इसकी दो वजह हो सकती हैं। एक, यह सहज उपलब्ध हो जाती है, दूसरी जेब का बजट भी बना रहता है। विशुद्ध रूप से चाय-मटृठी के कारण स्टिंगर से लेकर उपसंपादकों की जमात तक एक-दूसरे से जुड़ी रहती है। लंबी-चौड़ी व्याख्यान माला जो कभी काफी हाउसों में होती थी, वो अब संक्षिप्त प्रकरण में चाय की ठेली या चाय की दुकानों पर होने लगी है। चाय का आWर्डर देने से चाय पीने की 10-15 की अवधि में देश-विदेश के सभी गंभीर मुíों पर अच्छी खासी चर्चा के साथ-साथ कार्यालयी निंदा रस तथा आर्टिकल के लिए किसका इंटरव्यूह लिया जाए इस समस्या का भी समाधान हो जाता है।
लेकिन बढ़ती महंगाई के असर से चाय-मटृठी भी अछूती नहीं रह पाई है। दूध, चाय और पानी की किल्लत के चलते अब चाय के दाम भी बढ़ गए हैं। जिसके कारण अब दो-पांच लोगों के संग चाय पीते समय यह सोचा जाता है कि बिल कौन दे। चूंकि चाय की दुकान में दिनभर में 5-7 बार जाना आम बात है ऐसे में दो-तीन बार भी बिल भरने वाला भी अपनी ढीली होती जेब का ध्यान रखकर एक-दो दिन बिना एकस्ट्रा चाय पीकर काम चला रहा है। खैर सरकार को चाहिए की वो चाय-मटृठी पर भी सब्सिडी देनी शुरू करे। आपका क्या विचार है!
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