Monday, May 19, 2008

स्वयं भू भगवान

स्वयं भू भगवान
प्रत्येक चीज की अपनी सीमाएं होती हैं, जिसका पालन किया जाना चाहिए। यही बात प्रकृति के दोहन के संदर्भ में निर्विरोध रूप से लागू होती है। प्रकृति का सामजस्य हमसे नहीं है। अपितु हमारे जीवन का संपूर्ण ताना-बाना उस पर आधारित है। प्राणी जगत की सत्ता, प्रकृति द्वारा प्रदत सौगातों पर ही निर्भर हैं, जिसे हमने अपने कौशल के माध्यम से उपयोग में लाना सीखा है।
लेकिन इसके इत्तर, अपने अद्यतन अनुसंधानों पर अत्यधिक विश्वास कर शायद हम इस वैज्ञानिक युग में खुद को स्वयं यू भगवान मानने की आदिम कल्पना को संकल्पना में परिवर्तित करने के मिथक प्रयास रहे हैं। सूक्ष्म अणु में व्याप्त असीम शक्ति को नियंत्रित कर, उसका प्रतिनिधित्व करके यह सोचना की हम सृष्टि के निर्यामक बन गए हैं, किसी फंतासी से कम नहीं है। कृत्रिम गर्भाधन, क्लोनिंग, अंतरिक्ष विज्ञान इत्यादि के क्षेत्र में अप्रतिम प्रगति अवश्य ही हुई, परंतु इसका यह तात्पर्य नहीं निकाल लिया जाना की हम प्रकृति की सत्ता को चुनौती देने में समर्थ हो गए हैं। इस धरा पर वहीं सब कुछ होगा जो मनुष्य सम्मत होगा सोचना भी गलत है। वस्तुत: हमें ध्यान रखना होगा कि कल्याणमयी प्रकृति ने जो अनुपम सौगात हमें दी हैं, उसका वह अक्षय स्त्रोत ही हम समाप्त न कर दें।
वातावरण की दशाओं में आ रहे परिवर्तन, प्राकृतिक आपदाएं रह-रहकर इस इसी तथ्य को उभासित कर रही है कि प्राणी जगत की उपस्थिति इस धरती पर रंगमंच पर करतब दिखलाने वाली कठपुतलियों से अधिक नहीं है।
म्यांमर में आए भयंकर तूफान के बाद चीन में आए शक्तिशाली भूकंप ने एक बार फिर यह सोचने के लिए विवश कर दिया है कि प्राकृतिक आपदाओं पर नियंत्रण पाने में मनुष्य न केवल असमर्थ है अपितु उसके सम्मुख विवश भी है। गत~ कुछ वर्षों से प्राकृतिक आपदाओं में हो रही वृद्धि को वैज्ञानिक निरंतर पर्यावरण में किए जाए जा रहे अनुचित हस्तक्षेप तथा ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ रहे हैं, लेकिन अभी तक इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के लिए कोई भी देश तैयार नहीं दिखता। जो कि दु:खद विषय है। स्वयं भू भगवान बनकर प्रकृति को विना’ा के कागार पर पहुंचा के किसी नए गzह में जीवन की संभावना तला’ा करने से बेहतर है कि हम सब मिलकर पृथ्वी को बचाने का सार्थक प्रयास करें।

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