Saturday, February 7, 2009

चांद पर आशियाना ( व्यंग्य )


एक विदेशी कंपनी द्वारा चांद पर प्लांट काटकर बेचे जाने की खबर पढ़कर उन पारंगत प्रेमियों (दिवंगत नहीं, क्योंकि प्रेम अमर होता है, और इसलिए प्रेम करने वाले भी किस्से कहानियों में अमर हो ही जाते हैं। पारंगत इसलिए क्योंकि पहले तो एक-दूसरे को मिलने तथा बाद में प्रेम के प्रगाढ़ हो जाने पर एक-दूसरे को पाने के लिए तथा कभी अपवाद स्वरूप एक-दूसरे को छोड़ने के लिए अल्पमत वाली सरकार की तरह जोड़-तोड़ करते हैं) की आत्माओं को गहरी ठेस पहुंची होंगी जो सदियों से अपनी बपौती बने चांद को बिल्डर्स माफिया के कब्जें में फंसते हुए देख रहे होंगे। ये तो वास्तव में हद ही हो गई है। अब तो इसपर अखिल भारतीय प्रेमी-प्रेमिका मंच बनाकर, किसी महापंचायत की तरह महाअधिवेशन करने की आवश्यकता पड़ गई है। इस खबर को पढ़ते ही मेरे मन में ये विचार उस आकाशवाणी की तरह कौंधा जिसने प्राचीनकाल में कंस को भविष्य की आपदाओं से आगाह किया था। मुझे तो ये पूरा मामला डब्ल्यूटीओ की उन नीतियों से भी ज्यादा खतरनाक लगा, जोकि विकसित देशों के हितों की पैरवी के लिए गड़ी जाती हैं। अब बात यहां पर आ पहुंची है कि हमारे विशेषकर प्रेमी जोड़ों के आदर्श पूर्वज, हीर-रांझा, सोनी-महिवाल, लैला-मजनू आदि ने जहां अपने मुफ्त में आशियानें बनाएं वहां की पवित्र प्रेम में रंगी भूमि को ओने-पौने दामों में बेचा जा रहा है। ये सब देखकर उनके दिलों पर क्या बीतती होगी ये तो वो ही जानते होेंगे।
इस संसार में सबसे निरी प्राणी गधे को माना जाता है, मैं कुछ कारणों से प्रेमियों को मानता हूं। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो प्राय: कोमल भावनाओं की मिट्टी से बने ये प्राणी संसार में रहकर भी उससे उसी प्रकार पृथक रहते हैं जैसे पानी में रहकर भी मछली प्यासी ही रहती है। बेचारे एकांत की तलाश में परस्पर प्रेमालाप करने के लिए, इधर से उधर बिना पतंग की डोर की तरह अटकते-लटकते फिरते नजर आते हैं। 100 करोड़ से अधिक की आबादी वाले देश में जब उन्हें एकांत नसीब नहीं होता, तो वे बिना किसी विरोधी पार्टी की तरह संसद के इर्द-गिर्द धरने-प्रदर्शन करने की अपेक्षा चुप-चाप चांद पर घर बसाने की योजना बना डालते हैं। अब कोई इस बात का रोना न रोयें कि ज्यादातर जोड़े छ: हफ्ते से अधिक एक साथ न रहकर (एक दूसरे को झेल सकने के सामथ्र्य के अभाव में)किसी दूसरे उम्मीदवार से नैन मटक्का शुरू कर देते हैं। अरे जब समय बदला है तो कुछ न कुछ परिवर्तन आज की पीढ़ी में भी आना स्वभाविक ही है। परंतु जैसे बिल्ली ने म्यांउ-म्यांउ करना नहीं छोड़ा है वैसे ही ये भी पार्टनर जितने भी बदले पर चांद पर घर बसाने की चाह हर बार निसंकोच ही रखते हैं। ऐसे में ये प्रेमियों की भावनाओं के साथ व्यवसायिक खिलवाड़ नहीं है तो और क्या है। हमारे साहित्यकार चांद के अंदर अपनी प्रेमिकाओं की छवि को तलाशते हैं भले ही नासा वालों को वहां गडडे और चट्टानों के सिवाय कुछ भी नजर नहीं आता . दशक-दो दशक पहले अंतरिक्ष यान भेजकर वैज्ञानिकों ने प्रेमियों के खिलाफ लामबद्ध होने का एक जरियां तक खोज डाला, उन्होंने अंतरिक्ष यान चांद पर भेजकर इस तथ्य को खोजा की न तो वहां पर आक्सीजन है और न ही पानी । बिना गुरुत्वाकर्षण शक्ति के व्यक्ति वहां फुदकता ही रहता है। आज के परिपेक्ष्य में देखे तो ये एक लंबी साजिश है प्रेमी-प्रेमिकाओं के खिलाफ वैज्ञानिकों और बिल्डरों की । वो इस प्रकार के तथ्य सामने रखकर उनका हौसला तोड़ना चाहते हैं। परंतु उन भले इंसानों को ये कौन समझायें की भैया जो खोज उन्होंने लाखों करोड़ों डघ्लर खर्च करके की है उसके बारे में तो हमारे प्रेमी समाज को पहले से ही पता है। चांद का ऐसा एटमोस्टफियर क्रिऐट करने में हमारे लवर लिजेंड का बहुत बड़ा हाथ है। जहां वे प्रेम की वास्तविकता से अवगत थे, वहीं उन्हें शादी के लडडू का भी ज्ञान था। कल को चांद पर घर बसाने के बाद, प्रेमिका के भरन-पोषण के लिए रोटी-लून के जुगाड़ के लिए पापड़ बेलने पड़े या फिर मेहबूबा के हाथों में घर का काम करते हुए छाले न पड़ जाएं, इसलिए उन्होंने ऐसी जगह पसंद की जहां इन चीजों का पंगा ही न हो। और वो बस फुदकते-फुदकते इधर से उधर प्रेममल्हार गाते रहें। अब इन बेचारों से चांद छिन गया तो क्या होगा। रात-दिन वो इसी के ख्वाब ही तो देखते रहते हैं। उनका जो होगा सो होगा पर प्यार के देवता क्यूपिड का क्या होगा जो अपने तीर मार-मार कर चांद की बस्ती को आबाद किए हुए हैं। यदि वहां पर व्यवसायिक गतिविधियां प्रारंभ हो गई तो अवैध निर्माण भी होंगे फिर निगम का बुल्ड़ोजर नहीं-नहीं। सहृदय प्रेमियों के साथ ऐसा नहीं होने दिया जा सकता है। वार्षिक बजट की तरह सरकार को संसद में प्रेमियों के हितों से संबंधित एक विशेष बजट को पास करना ही होगा तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रेमियों की स्थिति को ध्यान में रखकर एक सहमति भी बनवानी होगी ताकि प्रेमियों का आशियाना अक्षुण रह सकें। यदि सरकार प्रेमियों की इस मांग पर खरी नहीं उतरती तो आने वाले चुनावों में वे अपनी स्थिति समझ सकती है।

Wednesday, February 4, 2009

तो क्या खाए इंसान!


यह खबर उन लोगों के मुंह का स्वाद बिगाड़ सकती है जो तली चीजों के खाने के शौकीन हैं। सेंटर फार साइंस एंड इनवायरमेंट यानि सीएसई ने अपने एक ताजा अध्ययन मे खादय तेलों की उपयोगिता पर पश्नचिहन उकेर कर दिया है। सरएसई ने बाजार से खादय तेलों के विभिन्न ाडों के 30 से ज्यादा नमूने एकत्र कर उनमें टांस फैटी ऐसिड यानि की कृत्रिम चर्बी की जांच की। नतीजे चौकाने वाले निकले। सीएसई की निदेशक सुनीता नारायण के अनुसार सभी वनस्पति तेलों में जहां स्वास्थ्य के लिए खतरनाक टांस फैट ऐसिड की मात्रा 5 से 12 गुना तक अधिक पाई गई वहीं घी मे यह 5.3 प्रति’ात तक है जो अंतर्राष्टीय मानक से कई गुणा ज्यादा है।
हैरानी की बात यह है कि देश में वनस्पति तेलों के लिए न तो कोई मानक तय किए गए हैं और न ही कोई प्रशासनिक निगरानी तंत्र ही है।उल्लेखनीय है कि टांस फैटी ऐसिड के कारण है शरीर में अच्छे कोलोस्टोल की कमी हो जाती है। यह दिल के लिए हानिकारक होने के साथ-साथ स्त्रियों मेें बांझपन तथा कैंसर जैसी घातक बिमारियां भी हो सकती है।
अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य क्या खाए। सिर्फ हवा-पानी के सहारे तो वह जीवित नहीं रह सकता और वो भी प्रदूषित ही है। जीवित रहने के लिए उसे भोजन की परम आवश्यक्ता होती है।परंतु खाने के लिए शुद्ध क्या बचा है। कभी सिंथेटिक दूध की खबरें सुर्खियों में आती हैं तो कभी सब्जियों की पैदावार रात ही रात में दुगनी करने के लिए रासायनिक पदार्थों के उपयोग की । पहले मिलावट के लिए आटे में नमक की कहावत कही जाती थी पर अब तो नमक में आटा मिलाने का चल पड़ा है जिसके बारे में सरकार को गंभीरता पूर्वक सोचना होगा।