Friday, May 23, 2008


क्या बदल रही है दिल्ली!
दिल्ली अभी दूर है, कभी यह मुहावरा किसी काम की दुरुहता के लिए उपयोग में आता था। पर अब यह मुहावरा समय की गर्त में खो चुका है। मुगलकाल में शानोशौकत के प्रर्याय के रूप में जाने वाली दिल्ली एक बार फिर बदलाव के दौर से गुजर रही है। दिल्ली को वल्र्डक्लास सिटी में बदलने की तैयारी जोरशोर से हो रही है। लेकिन क्या सीमेंट-रोड़ी के नित नये खड़े होते जंगल दिल्ली को बदल पाएंगे, यह एक अहम प्रश्न है जिसका जवाब समय ही देगा। लेकिन बदलती दिल्ली की तस्वीर के दो पक्ष हैं, जो साथसाथ उभरते हैं।


समय बदल रहा है, साथ ही दिल्ली के विकास की योजनाएं भी बदल रहीं हैं। मूलभूत सुविधओं की फेहरिस्त में अनेक चीजें तेजी से अपना स्थान सुनिश्चित करती जा रही हैं। जनता को अत्याध्ुनिक सुविधएं उपलब्ध कराने के लिए प्रशासन द्वारा ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया जा रहा है। दिल्ली को विश्वस्तरीय मानकों से सुसज्जित करने के प्रयास प्रशासन द्वारा किए जा रहे हंै। बदलो, बदलो और बदलो की गूंज ही अब हर ओर सुनाई देती है। वर्तमान की कड़वी वास्तविकाओं में भी भविष्य के सुखद स्वरूप को तलाशा जा रहा है। बदलाव की इस बयार में आने वाले वर्षों में देश की राजधानी दिल्ली की स्थिति कैसी होगी, इस पर चर्चा और योजनाओं को लेकर सरकार बेहद गंभीर है। काWमनवेल्थ खेलों की तैयारियां कर रही सरकार दिल्ली के भविष्य को लेकर बेहद आशावान हैं। बात चाहे बिजली-पानी की हो या फिर ट्रैफिक की। आने वाले वर्षों में दिल्ली सरकार के लिए सब कुछ ‘स्मूथ’ होने जा रहा है।


लेकिन इसके इतर, दिल्ली की आम जनता कुछ और भी कहती है। विकास के दावे जितने भी कर लिए जाएं, परंतु दिल्ली का वातावरण दिनोदिन खराब ही हो रहा है। सीएनजी वाहनों की बढ़ती संख्या भी वायु प्रदूषण के बढ़ते स्तर को कम करने में असफल हो रही है। मैट्रो ने दिल्ली को जाम से आजादी दी, लेकिन पहाड़ी पर बसी दिल्ली भीतर से खोखली भी हो रही है। फलाईओवरों, सड़कों को चौड़ा करने का परिणाम दिल्ली की आबोहवा पर भी पड़ रहा है। इनके निर्माण पर करोड़ों रुपये प्रशासन ने खर्च किए, साथ ही करोड़ों रुपये की वनस्पति संपदा को भी नुकसान पहुंचाया गया। सैकड़ों-हजारों पेड़ों को काट डाला गया। भले ही अद्यतन तकनीकी द्वारा पेड़ों को जड़ों सहित एक स्थान से दूसरे स्थान पर लगाने या फिर शासकीय दस्तावेजों में बढ़ती हरियाली को दर्शा दिया जाए, परंतु लोक सच इसके विपरीत है। दिल्ली से दिनोदिन हरे-भरे स्थान गायब होते जा रहे हैं। शहर के पेड़ खोखले हो जरा सी तेज आंधी-बारिश में भरभरा कर गिर रहे हैं। राजधानी की सड़कें वाहनों से इस कदर भरी पड़ी है कि आने वाले समय में दिल्ली को देश के सबसे बड़े पार्किंग स्थल के रूप में विकसित करने की आवश्यकता पड़ जाएगी। आने वाले कल में संभवत: गाड़ियों की रफतार 30-35 किलोमीटर प्रति घंटे से सिमट 8-10 किलोमीटर प्रति घंटे पर सिमट आए। यातायात के दिनोंदिन बढ़ते दबाव में, दिल्ली भागती कम हांफती ही अध्कि नजर आएगी। अरावली पर्वत माला पर बसी दिल्ली को भूकंप के खतरे वाली जोन में भी वरीयता प्राप्त है। अत्यधिक नवनिर्माणों के कारण दिल्ली भूकंपीय त्राासदी से मुक्त रह सकेगी? शब्दों की बाजीगिरी में न उलझा जाए तो स्पष्ट है कि पेयजल के लिए दिल्ली की निर्भरता पड़ोसी राज्यों पर कितनी है। गर्मियों में जल और विद्युत समस्या तो आम है लेकिन अब तो सर्दियों में भी यह संकट बरकरार रहता है। यमुना को साफ करने के लिए अब तक करोड़ों रुपये साफ हो चुके हैं, परंतु स्थिति जस की तस है। यमुना नदी को साफ करने के लिए विदेशों से बुलाए गए विशेषज्ञ भी हाथ जोड़कर भाग रहे हैं, ऐसे में सरकार किस प्रकार स्वच्छ दिल्ली हरित दिल्ली का नारा बोल सकती है। कारपोरेट कैपिटल में परिवर्तित होती दिल्ली की आबादी दो करोड़ का आंकड़ा छूने की तरफ बढ़ चुकी है ऐसे में बिना किसी सटीक योजना के बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा किस प्रकार किया जा सकेगा। इसे देख ऐसा नहीं लगता कि दिल्ली अभी दूर है!

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