Friday, May 30, 2008


बढ़ती महंगाई और खाघान्न की समस्या से चहुंओर आग लगी हुई है। इस आग से सबसे प्रभावित है आम नागरिक जिसे दो वक्त की रोटी जुटाना भी अब भारी पड़ रहा है। बीते दिनों मुदzास्फीति की दर में जिस प्रकार की वृद्धि दर्ज हुई वो चौकाने वाली है। सरकार के तमाम दावे और प्रयास 20-20 क्रिकेट में डेक्कन चार्जस के फ्लाप शो की तरह ही रहे। विश्व के नामचीन अर्थशास्त्रियों की जुगलबंदीे भी बढ़ती मुदzस्फीति की दर का थमाने में असमर्थ लगती है। हालांकि इस तथ्य को
झुठलाया नहीं कहा जा सकता की बढ़ती महंगाई के नेपथ्य में सरकारी नीतियों के साथ-साथ संपूर्ण विश्व की गतिविधियां भी कहीं न कहीं कारक के रूप में उपस्थित रहीं हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि संप्रग सरकार सारे मामले को वैश्विक घटनाओं पर थोपकर अपना पल्ला झाड़ ले। विकास का पहिया निरंतर घूमता रहे इसके लिए मजबूत अर्थव्यवस्था की आवश्यकता प्रथम अनिवार्य शर्त है। लेकिन हाल के दिनों में जिस प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था को झटके लग रहे हैं, वो भविष्य के प्रति आगाह करते हैं जिसकी अनदेखी करना महंगा पड़ सकता है। इस समस्या को दो विभिन्न आयामों से देखकर वैश्विक परिपेक्ष्य में सरकार की स्थिति को आंका जा सकता है।

18वीं शताब्दी की औद्योगिक क्रांति ने विश्व में एक नए युग का सूत्रपात कर दिया था। इस क्रांति की बदौलत न केवल यूरोप विकास के पथ पर अगzसर हुआ, अपितु संपूर्ण विश्व ही उसके बनाए रोड मैप का अनुसरण कर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने लगा।औद्योगिक क्रांति ने विकास की वो बुनियाद डाली जिस पर आज संपूर्ण संसार की अर्थव्यवस्था प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से टिकी हुई है।
प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध भी इसी औद्योगिक क्रांति की देन माने जा सकते हंै। औद्योगिकीकरण की रफ्तार बनाए रखने के लिए जब कच्चे माल तथा औद्योगिकीकरण के कारण फैक्ट्रियो में बने बहुतायात उत्पादों को खपाने के लिए बस्तियों की आवश्यकता पड़ी तब उपनिवेशवाद का एक नया दौर भी जन्मा था।यह कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं है कि औद्योगिकीकरण की वजह से ही हरित एवं श्वेत क्रांति भी अस्तित्व में आ सकीं।
बहरहाल, 19वीं शताब्दी की समाप्ति तक वैश्विक मंच और विभिन्न देशों की भौगोलिक सीमाओं में अनेक परिवर्तन आए और वैश्वीकरण की भावना को बढ़ावा मिलने लगा। आर्थिक क्षेत्र में सहयोग की बढ़ती आवश्यकता ने सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे पर निर्भर बनाकर, स्वयं को सर्वेसर्वा मानने की भावना को रसातल में पहुंचा दिया। यही कारण है कि जब विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, अमेरिका पर सबप्राइम संकट छाया तो भारत सहित अनेक देशों की अर्थव्यवस्था पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा और उससे बचने के उपाय ढूंढे जाने शुरू हुए। इसी प्रकार खाड़ी देशों से विभिन्न देशों में निर्यात किए जाने वाले कच्चे तेल की कीमतों का प्रभाव वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्ररोक्ष रूप से प्रभावित करने में सक्षम है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों का बढ़ना, महंगाई के बढ़ने की दिशा तय करता है, ऐसे में यह कह पाना काफी कठिन है कि अंतर्राष्ट्रीय पटल पर होने वाली हलचलों से कोई देश अब अछूता भी रह सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो महंगाई का मुíा एकमात्र सपंzग सरकार को चिंता का कही विषय नहीं, अपितु इस प्राय: प्रत्येक देश की सरकार अपने-अपने स्तर पर जूझ रही है। वस्तुत: वैश्वीकरण के लाभ और हानि बाWलीवुड की उस अभिनेत्री की तरह हो चुके हैं जिसके ज्यादा एक्सपोजर से हाय-हाय तो अदाओं पर वाह-वाह करने से लोग नहीं चूकते।
गत~ दिनों कैरेबियाई देशों में जो खाधान्न समस्या को लेकर घटनाएं घटित हुई वह इसी प्रभाव का परिणाम मानी जा सकती हैं। इसको लेकर विश्व भर के देश चिंतित होकर अनेक उपाय कर रहे है। आंकड़ों के मुताबिक जहां मुदzास्फीति की दर बढ़ी है वहीं गत~ ढाई दशकों में विश्व का अनाज भंडारण अपने निम्नतर स्तर पर पहुंच चुका है तथा खाद्यान्न की कीमतें रिकाWर्डस्तर को पार कर रही हंै। इसको देखते हुए विश्व के कई देशों में अनाज के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए जा रहे है। तो कहीं आयात पर से प्रतिबंध हटाएं जा रहें हैं। वस्तुत सारी स्थिति ही इस ओर इशारा कर रही हैं कि महंगाई का बढ़ना एक मात्र सरकार की असफल नीतियांे का परिणाम नहीं है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नही लगाया जा सकता कि खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों को कम करने में सरकार द्वारा किसी पहल की जरूरत नहीं है। देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी खाद्यान्न की कमी और उनकी कीमतों में वृद्धि को सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखते है। चूंकि खाद्यान्न की कीमतों पर अंकुश नहीं लगता, तो इसका सीधा प्रभाव आर्थिक विकास और अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय है। लेकिन देश में ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न हुई इसे समझना भी आवश्यक है। महंगाई बढ़ने के दो प्रमुख कारणों सब प्राइम संकट और बढ़ती तेल की कीमतों को निकाल दें तो इसके इत्तर भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण कारण है जो देश में खाद्यान्न कीमतों की बढ़ोत्तरी के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है और इसका सबसे प्रमुख कारण कृषि क्षेत्र की उपेक्षा है।
कृषि क्षेत्र के प्रति बरती जाने वाली इसी उपेक्षा के परिणाम स्वरूप कृषक वर्ग अपने परंपरागत~ खेती-बाड़ी के व्यवसाय को छोड़कर अन्य उद्यमों के प्रति आकृष्ट हुआ। चूंकि आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था का मूलाधार कृषि ही है, परंतु उसके प्रति बरती गई सरकारी उपेक्षा किसानों का इस दिशा से मोहभंग करने में काफी रही। समय पर सरकारी ऋण न मिलने से परेशान किसान जहां गैर परंपरा गत~ उद्यमों की ओर कूच करने लगे वहीं ऋण के बोझ तले दबे किसान एक के बाद एक आत्महत्या करने को बाधित हुई। पिछले कुछ वर्षों का दौर कौन भुला सकता है जब किसानों की आत्महत्या से संबंधित खबरों में समाचार पत्र और टी.वी. चैनल अटे पड़े थे। सहायता के नाम पर नाम मात्र सरकारी धनराशि से किसानों का कितना भला हुआ, यह सहज ही समझा जा सकता है। समय से पूर्व संभावित खाद्यान्न समस्याओं का आंकलन करने में सभी पुरोधा भयंकर चूक कर बैठे। अन्यथा यह कैसे संभव है कि सेंसेक्स की उड़ान पर विकास दर की भविष्यवाणी करने वाले बढ़ती जनसंख्या के अनुरूप घटती फसल उत्पादकता पर मंथन नहीं कर सके। हां, इस संदर्भ में यह रियायत भले ही ली जा सकती है कि संपूर्ण विश्व में तमाम अर्थशास्त्री और कृषि वैज्ञानिकों के आंकड़ों से इत्तर यह स्थिति उत्पन्न हुई है।और इसका सबसे प्रमुख कारण कृषि क्षेत्र की उपेक्षा है।
कृषि क्षेत्र के प्रति बरती जाने वाली इसी उपेक्षा के परिणाम स्वरूप कृषक वर्ग अपने परंपरागत~ खेती-बाड़ी के व्यवसाय को छोड़कर अन्य उद्यमों के प्रति आकृष्ट हुआ। चूंकि आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था का मूलाधार कृषि ही है, परंतु उसके प्रति बरती गई सरकारी उपेक्षा किसानों का इस दिशा से मोहभंग करने में काफी रही। समय पर सरकारी ऋण न मिलने से परेशान किसान जहां गैर परंपरा गत~ उद्यमों की ओर कूच करने लगे वहीं ऋण के बोझ तले दबे किसान एक के बाद एक आत्महत्या करने को बाधित हुई। पिछले कुछ वर्षों का दौर कौन भुला सकता है जब किसानों की आत्महत्या से संबंधित खबरों में समाचार पत्र और टी.वी. चैनल अटे पड़े थे। सहायता के नाम पर नाम मात्र सरकारी धनराशि से किसानों का कितना भला हुआ, यह सहज ही समझा जा सकता है। समय से पूर्व संभावित खाद्यान्न समस्याओं का आंकलन करने में सभी पुरोधा भयंकर चूक कर बैठे। अन्यथा यह कैसे संभव है कि सेंसेक्स की उड़ान पर विकास दर की भविष्यवाणी करने वाले बढ़ती जनसंख्या के अनुरूप घटती फसल उत्पादकता पर मंथन नहीं कर सके। हां, इस संदर्भ में यह रियायत भले ही ली जा सकती है कि संपूर्ण विश्व में तमाम अर्थशास्त्री और कृषि वैज्ञानिकों के आंकड़ों से इत्तर यह स्थिति उत्पन्न हुई है। जानकारों का मानना है कि देश में हरित क्रांति के उपरांत एक प्रकार से कृषि क्षेत्र की उपेक्षा प्रारंभ करनी शुरू हो गई है। देश में लगातार औद्योगिकीकरण को बढ़ावा मिलता रहा, जबकि कृषि क्षेत्र अपेक्षाकृत सुविधाओं से जुझने के साथ-साथ अपने विस्तार के लिए तरसते रहें। जिसका परिणाम यह हुआ कि जनसंख्या के अनुरूप औसतन वार्षिक पैदावार में जो वृद्धि होनी चाहिए थी वह नहीं हो सकी।

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