Friday, May 30, 2008


बढ़ती महंगाई और खाघान्न की समस्या से चहुंओर आग लगी हुई है। इस आग से सबसे प्रभावित है आम नागरिक जिसे दो वक्त की रोटी जुटाना भी अब भारी पड़ रहा है। बीते दिनों मुदzास्फीति की दर में जिस प्रकार की वृद्धि दर्ज हुई वो चौकाने वाली है। सरकार के तमाम दावे और प्रयास 20-20 क्रिकेट में डेक्कन चार्जस के फ्लाप शो की तरह ही रहे। विश्व के नामचीन अर्थशास्त्रियों की जुगलबंदीे भी बढ़ती मुदzस्फीति की दर का थमाने में असमर्थ लगती है। हालांकि इस तथ्य को
झुठलाया नहीं कहा जा सकता की बढ़ती महंगाई के नेपथ्य में सरकारी नीतियों के साथ-साथ संपूर्ण विश्व की गतिविधियां भी कहीं न कहीं कारक के रूप में उपस्थित रहीं हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि संप्रग सरकार सारे मामले को वैश्विक घटनाओं पर थोपकर अपना पल्ला झाड़ ले। विकास का पहिया निरंतर घूमता रहे इसके लिए मजबूत अर्थव्यवस्था की आवश्यकता प्रथम अनिवार्य शर्त है। लेकिन हाल के दिनों में जिस प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था को झटके लग रहे हैं, वो भविष्य के प्रति आगाह करते हैं जिसकी अनदेखी करना महंगा पड़ सकता है। इस समस्या को दो विभिन्न आयामों से देखकर वैश्विक परिपेक्ष्य में सरकार की स्थिति को आंका जा सकता है।

18वीं शताब्दी की औद्योगिक क्रांति ने विश्व में एक नए युग का सूत्रपात कर दिया था। इस क्रांति की बदौलत न केवल यूरोप विकास के पथ पर अगzसर हुआ, अपितु संपूर्ण विश्व ही उसके बनाए रोड मैप का अनुसरण कर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने लगा।औद्योगिक क्रांति ने विकास की वो बुनियाद डाली जिस पर आज संपूर्ण संसार की अर्थव्यवस्था प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से टिकी हुई है।
प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध भी इसी औद्योगिक क्रांति की देन माने जा सकते हंै। औद्योगिकीकरण की रफ्तार बनाए रखने के लिए जब कच्चे माल तथा औद्योगिकीकरण के कारण फैक्ट्रियो में बने बहुतायात उत्पादों को खपाने के लिए बस्तियों की आवश्यकता पड़ी तब उपनिवेशवाद का एक नया दौर भी जन्मा था।यह कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं है कि औद्योगिकीकरण की वजह से ही हरित एवं श्वेत क्रांति भी अस्तित्व में आ सकीं।
बहरहाल, 19वीं शताब्दी की समाप्ति तक वैश्विक मंच और विभिन्न देशों की भौगोलिक सीमाओं में अनेक परिवर्तन आए और वैश्वीकरण की भावना को बढ़ावा मिलने लगा। आर्थिक क्षेत्र में सहयोग की बढ़ती आवश्यकता ने सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे पर निर्भर बनाकर, स्वयं को सर्वेसर्वा मानने की भावना को रसातल में पहुंचा दिया। यही कारण है कि जब विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, अमेरिका पर सबप्राइम संकट छाया तो भारत सहित अनेक देशों की अर्थव्यवस्था पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा और उससे बचने के उपाय ढूंढे जाने शुरू हुए। इसी प्रकार खाड़ी देशों से विभिन्न देशों में निर्यात किए जाने वाले कच्चे तेल की कीमतों का प्रभाव वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्ररोक्ष रूप से प्रभावित करने में सक्षम है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों का बढ़ना, महंगाई के बढ़ने की दिशा तय करता है, ऐसे में यह कह पाना काफी कठिन है कि अंतर्राष्ट्रीय पटल पर होने वाली हलचलों से कोई देश अब अछूता भी रह सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो महंगाई का मुíा एकमात्र सपंzग सरकार को चिंता का कही विषय नहीं, अपितु इस प्राय: प्रत्येक देश की सरकार अपने-अपने स्तर पर जूझ रही है। वस्तुत: वैश्वीकरण के लाभ और हानि बाWलीवुड की उस अभिनेत्री की तरह हो चुके हैं जिसके ज्यादा एक्सपोजर से हाय-हाय तो अदाओं पर वाह-वाह करने से लोग नहीं चूकते।
गत~ दिनों कैरेबियाई देशों में जो खाधान्न समस्या को लेकर घटनाएं घटित हुई वह इसी प्रभाव का परिणाम मानी जा सकती हैं। इसको लेकर विश्व भर के देश चिंतित होकर अनेक उपाय कर रहे है। आंकड़ों के मुताबिक जहां मुदzास्फीति की दर बढ़ी है वहीं गत~ ढाई दशकों में विश्व का अनाज भंडारण अपने निम्नतर स्तर पर पहुंच चुका है तथा खाद्यान्न की कीमतें रिकाWर्डस्तर को पार कर रही हंै। इसको देखते हुए विश्व के कई देशों में अनाज के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए जा रहे है। तो कहीं आयात पर से प्रतिबंध हटाएं जा रहें हैं। वस्तुत सारी स्थिति ही इस ओर इशारा कर रही हैं कि महंगाई का बढ़ना एक मात्र सरकार की असफल नीतियांे का परिणाम नहीं है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नही लगाया जा सकता कि खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों को कम करने में सरकार द्वारा किसी पहल की जरूरत नहीं है। देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी खाद्यान्न की कमी और उनकी कीमतों में वृद्धि को सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखते है। चूंकि खाद्यान्न की कीमतों पर अंकुश नहीं लगता, तो इसका सीधा प्रभाव आर्थिक विकास और अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय है। लेकिन देश में ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न हुई इसे समझना भी आवश्यक है। महंगाई बढ़ने के दो प्रमुख कारणों सब प्राइम संकट और बढ़ती तेल की कीमतों को निकाल दें तो इसके इत्तर भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण कारण है जो देश में खाद्यान्न कीमतों की बढ़ोत्तरी के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है और इसका सबसे प्रमुख कारण कृषि क्षेत्र की उपेक्षा है।
कृषि क्षेत्र के प्रति बरती जाने वाली इसी उपेक्षा के परिणाम स्वरूप कृषक वर्ग अपने परंपरागत~ खेती-बाड़ी के व्यवसाय को छोड़कर अन्य उद्यमों के प्रति आकृष्ट हुआ। चूंकि आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था का मूलाधार कृषि ही है, परंतु उसके प्रति बरती गई सरकारी उपेक्षा किसानों का इस दिशा से मोहभंग करने में काफी रही। समय पर सरकारी ऋण न मिलने से परेशान किसान जहां गैर परंपरा गत~ उद्यमों की ओर कूच करने लगे वहीं ऋण के बोझ तले दबे किसान एक के बाद एक आत्महत्या करने को बाधित हुई। पिछले कुछ वर्षों का दौर कौन भुला सकता है जब किसानों की आत्महत्या से संबंधित खबरों में समाचार पत्र और टी.वी. चैनल अटे पड़े थे। सहायता के नाम पर नाम मात्र सरकारी धनराशि से किसानों का कितना भला हुआ, यह सहज ही समझा जा सकता है। समय से पूर्व संभावित खाद्यान्न समस्याओं का आंकलन करने में सभी पुरोधा भयंकर चूक कर बैठे। अन्यथा यह कैसे संभव है कि सेंसेक्स की उड़ान पर विकास दर की भविष्यवाणी करने वाले बढ़ती जनसंख्या के अनुरूप घटती फसल उत्पादकता पर मंथन नहीं कर सके। हां, इस संदर्भ में यह रियायत भले ही ली जा सकती है कि संपूर्ण विश्व में तमाम अर्थशास्त्री और कृषि वैज्ञानिकों के आंकड़ों से इत्तर यह स्थिति उत्पन्न हुई है।और इसका सबसे प्रमुख कारण कृषि क्षेत्र की उपेक्षा है।
कृषि क्षेत्र के प्रति बरती जाने वाली इसी उपेक्षा के परिणाम स्वरूप कृषक वर्ग अपने परंपरागत~ खेती-बाड़ी के व्यवसाय को छोड़कर अन्य उद्यमों के प्रति आकृष्ट हुआ। चूंकि आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था का मूलाधार कृषि ही है, परंतु उसके प्रति बरती गई सरकारी उपेक्षा किसानों का इस दिशा से मोहभंग करने में काफी रही। समय पर सरकारी ऋण न मिलने से परेशान किसान जहां गैर परंपरा गत~ उद्यमों की ओर कूच करने लगे वहीं ऋण के बोझ तले दबे किसान एक के बाद एक आत्महत्या करने को बाधित हुई। पिछले कुछ वर्षों का दौर कौन भुला सकता है जब किसानों की आत्महत्या से संबंधित खबरों में समाचार पत्र और टी.वी. चैनल अटे पड़े थे। सहायता के नाम पर नाम मात्र सरकारी धनराशि से किसानों का कितना भला हुआ, यह सहज ही समझा जा सकता है। समय से पूर्व संभावित खाद्यान्न समस्याओं का आंकलन करने में सभी पुरोधा भयंकर चूक कर बैठे। अन्यथा यह कैसे संभव है कि सेंसेक्स की उड़ान पर विकास दर की भविष्यवाणी करने वाले बढ़ती जनसंख्या के अनुरूप घटती फसल उत्पादकता पर मंथन नहीं कर सके। हां, इस संदर्भ में यह रियायत भले ही ली जा सकती है कि संपूर्ण विश्व में तमाम अर्थशास्त्री और कृषि वैज्ञानिकों के आंकड़ों से इत्तर यह स्थिति उत्पन्न हुई है। जानकारों का मानना है कि देश में हरित क्रांति के उपरांत एक प्रकार से कृषि क्षेत्र की उपेक्षा प्रारंभ करनी शुरू हो गई है। देश में लगातार औद्योगिकीकरण को बढ़ावा मिलता रहा, जबकि कृषि क्षेत्र अपेक्षाकृत सुविधाओं से जुझने के साथ-साथ अपने विस्तार के लिए तरसते रहें। जिसका परिणाम यह हुआ कि जनसंख्या के अनुरूप औसतन वार्षिक पैदावार में जो वृद्धि होनी चाहिए थी वह नहीं हो सकी।

Friday, May 23, 2008


क्या बदल रही है दिल्ली!
दिल्ली अभी दूर है, कभी यह मुहावरा किसी काम की दुरुहता के लिए उपयोग में आता था। पर अब यह मुहावरा समय की गर्त में खो चुका है। मुगलकाल में शानोशौकत के प्रर्याय के रूप में जाने वाली दिल्ली एक बार फिर बदलाव के दौर से गुजर रही है। दिल्ली को वल्र्डक्लास सिटी में बदलने की तैयारी जोरशोर से हो रही है। लेकिन क्या सीमेंट-रोड़ी के नित नये खड़े होते जंगल दिल्ली को बदल पाएंगे, यह एक अहम प्रश्न है जिसका जवाब समय ही देगा। लेकिन बदलती दिल्ली की तस्वीर के दो पक्ष हैं, जो साथसाथ उभरते हैं।


समय बदल रहा है, साथ ही दिल्ली के विकास की योजनाएं भी बदल रहीं हैं। मूलभूत सुविधओं की फेहरिस्त में अनेक चीजें तेजी से अपना स्थान सुनिश्चित करती जा रही हैं। जनता को अत्याध्ुनिक सुविधएं उपलब्ध कराने के लिए प्रशासन द्वारा ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया जा रहा है। दिल्ली को विश्वस्तरीय मानकों से सुसज्जित करने के प्रयास प्रशासन द्वारा किए जा रहे हंै। बदलो, बदलो और बदलो की गूंज ही अब हर ओर सुनाई देती है। वर्तमान की कड़वी वास्तविकाओं में भी भविष्य के सुखद स्वरूप को तलाशा जा रहा है। बदलाव की इस बयार में आने वाले वर्षों में देश की राजधानी दिल्ली की स्थिति कैसी होगी, इस पर चर्चा और योजनाओं को लेकर सरकार बेहद गंभीर है। काWमनवेल्थ खेलों की तैयारियां कर रही सरकार दिल्ली के भविष्य को लेकर बेहद आशावान हैं। बात चाहे बिजली-पानी की हो या फिर ट्रैफिक की। आने वाले वर्षों में दिल्ली सरकार के लिए सब कुछ ‘स्मूथ’ होने जा रहा है।


लेकिन इसके इतर, दिल्ली की आम जनता कुछ और भी कहती है। विकास के दावे जितने भी कर लिए जाएं, परंतु दिल्ली का वातावरण दिनोदिन खराब ही हो रहा है। सीएनजी वाहनों की बढ़ती संख्या भी वायु प्रदूषण के बढ़ते स्तर को कम करने में असफल हो रही है। मैट्रो ने दिल्ली को जाम से आजादी दी, लेकिन पहाड़ी पर बसी दिल्ली भीतर से खोखली भी हो रही है। फलाईओवरों, सड़कों को चौड़ा करने का परिणाम दिल्ली की आबोहवा पर भी पड़ रहा है। इनके निर्माण पर करोड़ों रुपये प्रशासन ने खर्च किए, साथ ही करोड़ों रुपये की वनस्पति संपदा को भी नुकसान पहुंचाया गया। सैकड़ों-हजारों पेड़ों को काट डाला गया। भले ही अद्यतन तकनीकी द्वारा पेड़ों को जड़ों सहित एक स्थान से दूसरे स्थान पर लगाने या फिर शासकीय दस्तावेजों में बढ़ती हरियाली को दर्शा दिया जाए, परंतु लोक सच इसके विपरीत है। दिल्ली से दिनोदिन हरे-भरे स्थान गायब होते जा रहे हैं। शहर के पेड़ खोखले हो जरा सी तेज आंधी-बारिश में भरभरा कर गिर रहे हैं। राजधानी की सड़कें वाहनों से इस कदर भरी पड़ी है कि आने वाले समय में दिल्ली को देश के सबसे बड़े पार्किंग स्थल के रूप में विकसित करने की आवश्यकता पड़ जाएगी। आने वाले कल में संभवत: गाड़ियों की रफतार 30-35 किलोमीटर प्रति घंटे से सिमट 8-10 किलोमीटर प्रति घंटे पर सिमट आए। यातायात के दिनोंदिन बढ़ते दबाव में, दिल्ली भागती कम हांफती ही अध्कि नजर आएगी। अरावली पर्वत माला पर बसी दिल्ली को भूकंप के खतरे वाली जोन में भी वरीयता प्राप्त है। अत्यधिक नवनिर्माणों के कारण दिल्ली भूकंपीय त्राासदी से मुक्त रह सकेगी? शब्दों की बाजीगिरी में न उलझा जाए तो स्पष्ट है कि पेयजल के लिए दिल्ली की निर्भरता पड़ोसी राज्यों पर कितनी है। गर्मियों में जल और विद्युत समस्या तो आम है लेकिन अब तो सर्दियों में भी यह संकट बरकरार रहता है। यमुना को साफ करने के लिए अब तक करोड़ों रुपये साफ हो चुके हैं, परंतु स्थिति जस की तस है। यमुना नदी को साफ करने के लिए विदेशों से बुलाए गए विशेषज्ञ भी हाथ जोड़कर भाग रहे हैं, ऐसे में सरकार किस प्रकार स्वच्छ दिल्ली हरित दिल्ली का नारा बोल सकती है। कारपोरेट कैपिटल में परिवर्तित होती दिल्ली की आबादी दो करोड़ का आंकड़ा छूने की तरफ बढ़ चुकी है ऐसे में बिना किसी सटीक योजना के बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा किस प्रकार किया जा सकेगा। इसे देख ऐसा नहीं लगता कि दिल्ली अभी दूर है!

Thursday, May 22, 2008

शेनवार्न तुसी कमाल हो।


मुंबई इंडियन और किंग्स इलेवन के बीच कल हुए 20-20 मैच को आपने नहीं देखा तो यकीनन आप एक मजेदार रोमांचकारी मैच देखने से वंचित रह गए। मैच की आखिरी गेंद तक आप यह नहीं कह सकते थे की मैच कौन जीतेगा। मास्टर ब्लास्टर सचिन जब तक पिच पर रहे यह लग रहा था कि मैच मुंबई ही जीतेगी, पर उनके रनआउ ट होते ही मैच का नक्शा बदल गया। मैच के अंतिम ओवर में युवराज की कप्तानी की प्रशंसा करनी होगी जिन्होंने मैच वापिस अपने कब्जे में ले लिया। इस सब के बीच शेनवार्न की भी तारीफ करनी भी बहुत जरूरी है जिन्होंने इस टूर्नामेंट के आरम्भ में सबसे कमजोर माने जाने वाली टीम को बेहतरीन टीम बना दिया। वाकई शेनवार्न तुसी कमाल हो।

Tuesday, May 20, 2008

20-20 क्रिकेट


आईपीएल का खुमार अपने यौवन पर है। धड़ाधड़ चौंके-छक्के पड़ने वाला यह सेगमेंट लोगों का भरपूर मनोरंजन कर रहा है। खेल के इस आयोजन ने क्रिकेट विश्व कप के रोमांच को भी कहीं पीछे छोड़ दिया है। देशी-विदेशी खिलाड़ियों से सजी-धजी टीमें जब अपने जौहर पिच पर दिखाती हैं, तो दर्शकों का उत्साह कई गुणा बढ़ जाता है। दो-एक विवादों को छोड़ दें तो आईपीएल का यह प्रयोग न केवल अत्यधिक सफल रहा, अपितु इसने भविष्य के लिए अनेक नवीन संभावनाओं के भी द्वार खोल दिए हंै। क्रिकेट के देश में इस टूर्नामेंट की सफलता को लेकर भले ही अनेक कयासों का दौर चला हो, परंतु बीसीसीआई का यह नया काWरपोरेट एडिशन रंग ला रहा है। हालांकि इसमें दो राय नहीं है कि अपने देश में क्रिकेट को लेकर जो दीवानगी है उसे थोड़ी सी मार्किटिंग स्टेट~जी के साथ आसानी से भुनाया जा सकता है। और इस आयोजन से वो दीवानगी और बढ़ी है, इसे झुठलाया नही जा सकता। लेकिन एकमात्र क्रिकेट का उद्धार होने से यह नहीं माना जा सकता कि सभी खेलों की स्थिति में भी सुधार हो रहा है। देश का राष्ट्रीय खेल हाWकी पतन के गर्त से उभरने की कोशिश कर रहा है। फुटबाWल पश्चिम बंगाल आदि राज्यों को छोड़कर अन्य राज्यों में अपनी जड़ें मजबूत नहीं कर सका है। बैडमिंटन, टेबल टेनिस, बाWक्सिंग, कुश्ती, कबड~डी आदि का भविष्य भगवान भरोसे ही लगता है। टेनिस और शतरंज में विजय आनंद, भूपति-पेस तथा सानिया मिर्जा ने अपने प्रदर्शन के बल पर विश्व पटल पर स्थान बनाया है लेकिन इनकी लोकप्रियता भी देश में औनी-पौनी ही है। इन सभी खेलों को क्रिकेट के समकक्ष आंका जाए तो अंतर उन्नीस-बीस का नहीं, बल्कि 10-1 का निकलेगा। क्रिकेट की लोकप्रियता के गzाफ इन सभी खेलों की तुलना में कहीं Åंचा है, इसका मतलब यह नही कि क्रिकेट के प्रति कोई पूर्वागzह रखा जाए। लेकिन देश में सभी खेलों को समान रूप से फलने-फूलने के लिए अवसर अवश्य मिलंे, इसका ध्यान भी रखना परम~ आवश्यक है। सरकारी अनुदान के भरोसे अन्य खेलों का सुधार हो, यह संभव नही लगता। वर्तमान में आपेक्षित तो यही लगता है कि काWरपोरेट घराने तथा सिनेमा की सपोर्ट अन्य खेलों को प्रोत्साहित करने के लिए अवश्य होनी चाहिए। 20-20 क्रिकेट फाWरमेट की तरह दूसरे खेलों के फाWरमेट में भी बदलाव लाकर उन्हंे प्रोत्साहित करने का व्यापक प्रयास करना चाहिए।

Monday, May 19, 2008

स्वयं भू भगवान

स्वयं भू भगवान
प्रत्येक चीज की अपनी सीमाएं होती हैं, जिसका पालन किया जाना चाहिए। यही बात प्रकृति के दोहन के संदर्भ में निर्विरोध रूप से लागू होती है। प्रकृति का सामजस्य हमसे नहीं है। अपितु हमारे जीवन का संपूर्ण ताना-बाना उस पर आधारित है। प्राणी जगत की सत्ता, प्रकृति द्वारा प्रदत सौगातों पर ही निर्भर हैं, जिसे हमने अपने कौशल के माध्यम से उपयोग में लाना सीखा है।
लेकिन इसके इत्तर, अपने अद्यतन अनुसंधानों पर अत्यधिक विश्वास कर शायद हम इस वैज्ञानिक युग में खुद को स्वयं यू भगवान मानने की आदिम कल्पना को संकल्पना में परिवर्तित करने के मिथक प्रयास रहे हैं। सूक्ष्म अणु में व्याप्त असीम शक्ति को नियंत्रित कर, उसका प्रतिनिधित्व करके यह सोचना की हम सृष्टि के निर्यामक बन गए हैं, किसी फंतासी से कम नहीं है। कृत्रिम गर्भाधन, क्लोनिंग, अंतरिक्ष विज्ञान इत्यादि के क्षेत्र में अप्रतिम प्रगति अवश्य ही हुई, परंतु इसका यह तात्पर्य नहीं निकाल लिया जाना की हम प्रकृति की सत्ता को चुनौती देने में समर्थ हो गए हैं। इस धरा पर वहीं सब कुछ होगा जो मनुष्य सम्मत होगा सोचना भी गलत है। वस्तुत: हमें ध्यान रखना होगा कि कल्याणमयी प्रकृति ने जो अनुपम सौगात हमें दी हैं, उसका वह अक्षय स्त्रोत ही हम समाप्त न कर दें।
वातावरण की दशाओं में आ रहे परिवर्तन, प्राकृतिक आपदाएं रह-रहकर इस इसी तथ्य को उभासित कर रही है कि प्राणी जगत की उपस्थिति इस धरती पर रंगमंच पर करतब दिखलाने वाली कठपुतलियों से अधिक नहीं है।
म्यांमर में आए भयंकर तूफान के बाद चीन में आए शक्तिशाली भूकंप ने एक बार फिर यह सोचने के लिए विवश कर दिया है कि प्राकृतिक आपदाओं पर नियंत्रण पाने में मनुष्य न केवल असमर्थ है अपितु उसके सम्मुख विवश भी है। गत~ कुछ वर्षों से प्राकृतिक आपदाओं में हो रही वृद्धि को वैज्ञानिक निरंतर पर्यावरण में किए जाए जा रहे अनुचित हस्तक्षेप तथा ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ रहे हैं, लेकिन अभी तक इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के लिए कोई भी देश तैयार नहीं दिखता। जो कि दु:खद विषय है। स्वयं भू भगवान बनकर प्रकृति को विना’ा के कागार पर पहुंचा के किसी नए गzह में जीवन की संभावना तला’ा करने से बेहतर है कि हम सब मिलकर पृथ्वी को बचाने का सार्थक प्रयास करें।

चाय-मटृठी

चाय-मटृठी का मेल भी अपने आप में अनोखा है। गर्म-गर्म चाय के साथ करारी-खस्ता नमकीन मटृठी अपने अनुभव के आधार पर प्रिंट मीडिया के पत्रकारों में अच्छी-खासी लोकप्रिय है। जहां तक मेरा मानना है कि स्पष्ट रूप से इसकी दो वजह हो सकती हैं। एक, यह सहज उपलब्ध हो जाती है, दूसरी जेब का बजट भी बना रहता है। विशुद्ध रूप से चाय-मटृठी के कारण स्टिंगर से लेकर उपसंपादकों की जमात तक एक-दूसरे से जुड़ी रहती है। लंबी-चौड़ी व्याख्यान माला जो कभी काफी हाउसों में होती थी, वो अब संक्षिप्त प्रकरण में चाय की ठेली या चाय की दुकानों पर होने लगी है। चाय का आWर्डर देने से चाय पीने की 10-15 की अवधि में देश-विदेश के सभी गंभीर मुíों पर अच्छी खासी चर्चा के साथ-साथ कार्यालयी निंदा रस तथा आर्टिकल के लिए किसका इंटरव्यूह लिया जाए इस समस्या का भी समाधान हो जाता है।
लेकिन बढ़ती महंगाई के असर से चाय-मटृठी भी अछूती नहीं रह पाई है। दूध, चाय और पानी की किल्लत के चलते अब चाय के दाम भी बढ़ गए हैं। जिसके कारण अब दो-पांच लोगों के संग चाय पीते समय यह सोचा जाता है कि बिल कौन दे। चूंकि चाय की दुकान में दिनभर में 5-7 बार जाना आम बात है ऐसे में दो-तीन बार भी बिल भरने वाला भी अपनी ढीली होती जेब का ध्यान रखकर एक-दो दिन बिना एकस्ट्रा चाय पीकर काम चला रहा है। खैर सरकार को चाहिए की वो चाय-मटृठी पर भी सब्सिडी देनी शुरू करे। आपका क्या विचार है!